भारतीय राजनीति क्रिकेट के टी-20 मैच की तरह हो गई है। कब मैच किसकी तरफ पलट जाए कहा नहीं जा सकता है। शुरुआती बैट्समैन फेल हो गए तो नौंवे नंबर पर आने वाला भी अंतिम ओवर में क्या कर जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। हाल के वर्षों में चाहे वह राजस्थान का चुनाव हो, कर्नाटक का चुनाव हो, मध्यप्रदेश का चुनाव हो, हरियाणा का चुनाव हो या फिर अब महाराष्ट्ट का चुनाव हो, इनमें एक कॉमन बात यह रही कि अंतिम समय तक सस्पेंस बना रहा। कौन किसके साथ है। कौन किसको धोखा देगा। कौन सत्ता पर काबिज होगा। यह सब ठीक उसी तरह होता रहा जैसे टी-20 क्रिकेट मैच में होता है। अंतिम बॉल पर छक्का लगाकर मैच जिताने वाले खिलाड़ियों ने राजनीति में अपनी कलाकारी खूब दिखाई है।
शनिवार की सुबह देश भर के अखबारों की हेडलाइन में उद्धव ठाकरे का नाम मुख्यमंत्री के तौर पर था। पर सुबह के टीवी बुलेटिन में देवेंद्र फड़नवीस मुख्यमंत्री बन चुके थे। साथ ही शरद पवार के भतीजे अजित पवार उप मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले रहे थे। महाराष्ट की राजनीति के साथ-साथ पूरे देश के लोग हतप्रभ थे। पर इसमें बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है। महाराष्टÑ की राजनीति में एक बार फिर इतिहास ने स्वयं को दोहराया है। महाराष्टÑ में पहली बार इस तरह अंतिम बॉल में छक्का मारकर मैच जीतने की नींव शरद पवार ने ही रखी थी, और आज उन्हीं के परिवार के सबसे करीबी व्यक्ति ने उनके ही दांव से पटखनी देकर इतिहास को दोहराया है।
महाराष्ट की राजनीति में शरद पवार को एक ऐसे राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में याद किया जाता है, जिसका हर दल के साथ और हर नेता के साथ न केवल करीबी, बल्कि मजबूत संबंध रहा है। यही शरद पवार हैं जिनका बाल ठाकरे के साथ कभी सबसे बड़ा दोस्ताना था। दोस्ती इतनी गहरी थी कि लोग इनकी राजनीतिक दोस्ती की मिसाल देते थे। पर जब कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए महाराष्ट में संख्या बल कम पड़ गया तो यही शरद पवार थे, जिन्होंने सत्ता की लालच में अपने सबसे करीबी दोस्त के घर सेंध लगाने में हिचक नहीं दिखाई। शरद पवार ने ही बाल ठाकरे की पार्टी शिवसेना के कद्दावर नेता छगन भुजबल को अपनी पार्टी में मिला लिया। आज महाराष्टÑ की राजनीति में उठापटक के बाद शरद पवार दोस्ती और परिवार की दुआई दे रहे हैं। पर उनसे भी सवाल पूछना लाजमी है कि उन्होंने बाल ठाकरे के साथ क्या किया था?
इतना ही नहीं, शरद पवार के नाम कुछ ऐसे रिकॉर्ड भी हैं जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है। पवार कांग्रेस के नेता रहे, लेकिन सत्ता के लालच में उन्होंने दो बार कांग्रेस से बगावत की। पहली बार महाराष्ट में 1978 में और दूसरी बार 1999 में। 1977 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई थी। कांग्रेस यू और कांग्रेस आई के नाम से दो पार्टी बनी। पवार कांग्रेस यू में रहे। 1978 में महाराष्ट के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ही कांग्रेस के सामने थी। पर सत्ता के लालच में शरद पवार ने कांग्रेस यू को भी तोड़ लिया था और जनता पार्टी से जा मिले थे। बाद में सत्ता के लालच में ही उन्होंने कांग्रेस से अपने संबंध दोबारा मजबूत किए। पर 1999 में सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही उन्होंने बगावत कर दी। तमाम बड़े नेताओं को साथ लेकर उन्होंने राष्टवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) बना डाली।
दरअसल महाराष्ट का सियासी ड्रामा अपने आप में एक ऐसा उदाहरण है जिस पर आम लोगों को मंथन करने की जरूरत है। समझने की जरूरत है कि राजनीति में कोई किसी का न तो सगा होता है और न दुश्मन। आम लोगों को उल्टे सीधे भाषण सुनाकर ये सत्ता के हुनरमंद लोग सिर्फ अपने लिए ही जीते हैं। इन्हें न तो राजनीति के सिद्धांतों से मतलब है और न लोकतंत्र की सुचिता से। इन राजनीतिक हुनरमंदों को सिर्फ सत्ता चाहिए और इसके लिए लोकतंत्र का चीरहरण पहले भी होता आया है, अब भी हुआ है और आगे भी होता आएगा। इसीलिए आम लोगों को अपने विवेक का इस्तेमाल कर राजनीति का शिकार होने से बचना चाहिए।
महाराष्ट में आम लोगों ने कैसे धोखा खाया उसे कुछ इस तरह से समझें। वहां के लोगों ने शिवसेना और भाजपा के गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिया। पर सत्ता के लालच में शिवसेना ने अपना करीब तीस साल पुराना गठबंधन तोड़ लिया। जिस शिवसेना को कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता था। जिस शिवसेना के सर्वेसर्वा बाल ठाकरे ने ताउम्र कांग्रेस पार्टी को पानी पी पीकर कोसा। जिस सोनिया गांधी को विदेशी बताकर वो ताउम्र उनका विरोध करते रहे। उसी कांग्रेस के पास बाल ठाकरे के बेटे और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे ने जाने से परहेज नहीं किया। अपने तमाम राजनीतिक संस्कारों और पिता बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को उन्होंने दांव पर लगा दिया। महाराष्ट की जिस जनता ने कांग्रेस और राकांपा के खिलाफ उन्हें बहुमत दिया उसी जनता को उन्होंने राजनीति के मैदान में बेबस खड़ा कर दिया। यह ठीक वैसे ही था कि टी-20 के फाइनल मैच में बड़े उत्साह के साथ दर्शकों ने हजारों हजार रुपए का टिकट खरीदा। बड़े चाव के साथ परिवार के साथ मैच देखने पहुंचे। और किसी कारण से मैच ही रद कर दिया गया।
महाराष्ट में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद बीजेपी का हाल यह था कि मैच में शतक लगाने के बावजूद किसी खिलाड़ी की टीम इसलिए हार गई, क्योंकि विपक्षी पार्टी के छह बल्लेबाजों ने 40-40 रन बना लिए और मैच जितने की कगार पर पहुंच गए। भाजपा के थिंक टैंक कहे जाने वाले नितिन गडकरी ने भी कहा है कि राजनीति एक क्रिकेट मैच की तरह है। उन्होंने कुछ दिन पहले बयान दिया था कि राजनीति और क्रिकेट में कुछ भी हो सकता है। कभी लगता है कि आप हार रहे हैं, लेकिन परिणाम बिल्कुल उलट आता है।
भाजपा ने भी महाराष्ट में सत्ता हासिल करने के लिए अपने तमाम सिद्धांतों की तिलांजली दे दी है। जिस राकांपा के खिलाफ भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने महाराष्ट्र चुनाव में बयानबाजी की। जिस शरद पवार और अजित पवार को सबसे बड़ा भ्रष्टाचारी कहा। जिस पार्टी को सत्ता से बाहर रखने का जनता से वादा लिया। अब उसी राकांपा के साथ भाजपा सत्ता में है। सबसे बड़े भ्रष्टाचारी का जिसे तमगा दिया वो अब महाराष्टÑ का उप-मुख्यमंत्री है। आने वाले दिनों में हो सकता है महाराष्टÑ की राजनीति में अभी और रंग दिखे, क्योंकि तीस नवंबर तक बहुमत साबित करना है।
कुल मिलाकर महाराष्ट की राजनीति का सार यह है कि आम लोग राजनीतिक हुनरमंदों की बयानबाजी में खुद को संयमित रखें। राजनीति के चक्कर में आप भले ही जीवन भर किसी के दुश्मन बन जाएं। राजनीति के चक्कर में आप अपना सबसे भरोसेमंद दोस्त खो दें। लेकिन राजनीति में दुश्मनी नाम की कोई चीज नहीं होती है, भरोसा और दोस्ती समय की मांग होती है। महाराष्ट की राजनीति पर गंभीरता से मंथन करें और शांत चित्त से सर्दी का मजा लें।
वरिष्ठ पत्रकार कुणाल वर्मा